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Saturday, December 13, 2014

ज़न्नत मैं उठ रहा हैं धुंआ


ये जो ज़न्नत मैं उठ रहा हैं धुंआ..
किसी चिनार मैं आग लगी हो जैसे.
आवाज की परवाज गुम हो गयीं कहीं..
कि किसी दीवार मैं उसे चिनवाया हो उसे..

तकसीन की तारीफ क्या बयाँ करे यहाँ
रोशन हुई थी हर महफ़िल इनायत हो जैसे..
ये जो ज़न्नत मैं उठ रहा हैं धुँआ
किसी चिनार मैं आग लगी हो जैसे..

शिकारे दरिया मैं बहते नही अब फलक तक..
की पानी ने बर्फ की शक्ल अख्तियार की हो जैसे..
सरताज और सह्बाज़ हैरान हैं दोनों ही..
ऊँचाइयों का इस कदर गुमां इंसान को हुआ कैसे..

ये जो ज़न्नत मैं उठ रहा हैं धुआं..
किसी चिनार मैं आग लगी हो जैसे..


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