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Saturday, August 13, 2016

परछाई

जब जब देखता हूँ परछाई अपनी
फक्र होता हैं की मैं इंसान हो गया
रंग रूप रिश्ते राग़ छोड़कर
सब्र होता हैं की मैं इंसान हो गया

ये परछाई होती हैं पहचान सच्ची
बाकी सब तो बस मेहमान हो गया
लेना देना नही होता इसको कुछ
ये तो रौशनी के आगे का जहां हो गया

आप चलो चल सको जितना दूर
की कंधो पर सवार गुमां हो गया
डर फटकार संसार की चिंता
पैदा हुआ था इंसान हैवान हो गया

क्यू सोचे इस रीत के बारे मैं
जिस रीत से रूह परेशां हो गया
बस आवाज ही आवाज हैं धरख्तों के बीच
परिंदे उड़ गए जंगल वीरान हो गया

काश दौड़ना छोड़ देते हम अंधी दौड़ ये
जिसमें विश्वास अपना अन्ध्विस्वास हो गया
रुक जाये कभी और देख ले बस परछाई अपनी
जिस खोजा तिन पाईया तू भगवान् हो गया

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